मैंने कहा-शीर्षक तो आप ही
खोजिए।
उदयन जी ने कहा- तुम कोई पुराना
फिल्मी गीत गुनगुनाओ मैं उससे ही शीर्षक निकाल लूंगा।
मैंने कहा-शीर्षक तो आप ही
खोजिए।
उदयन जी ने कहा- तुम कोई पुराना
फिल्मी गीत गुनगुनाओ मैं उससे ही शीर्षक निकाल लूंगा।
थोड़ी देर बाद मैंने पूछा-भाई
आप कहां से है।
आप गौरिहार से यहां क्यों और कैसे आये हैं।
उसका उत्तर था-हमारी नीलिमा भाभी गैरिहार की हैं उनकी मदद के लिए ही
उनके मायके वालों ने मुझे भेजा है।
मैंने कहा-अरे गौरिहार तो
मेरा ननिहाल है।
लड़के ने चौंक कर पूछा किस
परिवार में।
मेरा जवाब था-पाठक परिवार में। मेरे एक मामा का नाम प्यारेलाल पाठक
है।
यह सुनते ही वह लड़का चौंक कर
बोला-अरे यह तो हमारी नीलिमा भाभी का परिवार है।
सुरेंद्र प्रताप सिंह |
अपनी आत्मकथा में हम पहले ही बता आये हैं कि आनंद बाजार प्रकाशन का हिंदी साप्ताहिक रविवार भ्रष्टाचार, अनाचार और राजनीतिक अनीति के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए विख्यात था। यह स्पष्ट है कि अगर आप सच के साथ खड़े हैं और किसी भी तरह के भ्रष्टाचार, अनाचार के विरुद्ध आवाज उठाना जब हड़ताल ने ‘रविवार’ की रफ्तार में लगा दिया ब्रेक आपका ध्येय और उद्देश्य है तो कभी ना कभी आपको उनके प्रतिरोध या कहें विरोध का सामना करना ही पड़ेगा जिनके विरुद्ध आप आवाज उठा रहे हैं। रविवार के साथ कोई ना कोई मामला लगा ही रहता था। यह और बात है कि किसी रिपोर्ट पर मामला होने पर लीगल विभाग घबराता नहीं खुश होता था और मामले को आखिरी परिणति तक लड़ता था। किसी ऐसी रिपोर्ट के बारे में जिस पर कानूनी विवाद होने की आशंका रहती थी लीगल विभाग रिपोर्टर या लेखक से उस रिपोर्ट में किसी पर लगाये गये आरोपों से संबंधित डाक्युमेंट अवश्य मंगा लेता था। इससे होता यह था कि अगर वह व्यक्ति जिस पर आरोप लगाये गये हैं मुकदमा भी करता तो दस्तावेजी सबूतों के सहारे रविवार मामला जीत जाता था।
इस क्रम में एक मामला ऐसा भी
आया था जिसके बाद लगा कि रविवार के प्रकाशन पर संकट आ जायेगा लेकिन वह संकट भी पार
हो गया। हम लोग आश्वस्त हुए और रविवार भी
निरंतर शान से निकलता और पाठकों के दिल
में घर करता रहा। लोगों को इस बात की खुशी थी कि ठकुरसुहाती वाली पत्रकारिता के
दौर में एक पत्रिका तो ऐसी आयी जो भ्रष्टाचार के खिलाफ सत्ता के सर्वोच्च स्थान पर
भी चोट करने का दम रखती है।
*
सब कुछ ठीकठाक चल रहा था कि एक सुबह ऐसा कुछ हुआ जिसकी हमने कल्पना तक
नहीं की थी। हम कार्यालय पहुंचे तो देखा मेन गेट बंद था और वहां लाल रंग का बैनर
लगा दिया गया था जिसमें हड़ताल की सूचना थी। यूनियन के कुछ कर्मचारी नारेबाजी कर
रहे थे। जब मैं वहां पहुंचा उसके कुछ देर बाद आनंद बाजार पत्रिका प्रकाशन की बच्चो
की पत्रिका ‘मेला’ के सहयोगी साथी
हरिनारायण सिंह भी वहां पहुंच गये। हम दोनों ने हड़ताली यूनियन वालों को बहुत
समझाने की बात की कि भाई बंद किसी चीज का समाधान नहीं प्रबंधन से बात कर के जो
समस्या है उसे सलटा लीजिए। हमें मत रोकिए हमारी पत्रिका का बहुत काम बाकी है अंक
प्रेस में छोड़ना है।
मैंने और हरिनारायण सिंह ने बहुत समझाया पर वे नहीं माने। तब तक और
पत्रकार आ गये थे, उन्होंने भी समझाया पर हड़ताली कर्मचारी हड़ताल करने पर कटिबद्ध
थे। उन्होंने द्वार नहीं खोला और नारेबाजी करते रहे। हम लोग वापस लौट आये।
दूसरे दिन इस उम्मीद में गये कि शायद प्रबंधन से हड़तालियों का समझौता
हो गया हो पर हमारी उम्मीदों पर उस वक्त पानी फिर गया जब हमने देखा कि हड़तालियों
की संख्या बढ़ गयी है और वे हड़ताल जारी रखने पर अडिग हैं। यह रविवार जैसी पत्रिका
में जो उत्तरोत्तर लोकप्रियता के नये शिखर तय कर रही थी और भ्रष्टाचार के खिलाफ
लड़नेवालों का हथियार बन गयी थी इस तरह ब्रेक लग जाना किसी भी तरह से सही नहीं था।
यह घटना मेरे खयाल से 1982 की है।
जब यह समझ में आ गया कि
हड़ताल किसी भी कीमत पर खत्म नहीं होगी तो फिर आनंग बाजार पत्रिका से जुड़े
पत्रकारों, संपादकों और उन कर्मचारियों ने जो हड़ताल में शामिल नहीं थे मिल-बैठ कर
एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया। तय यह किया गया कि आनंदबाजार पत्रिका प्रकाशन से जुड़े
पत्रकारों और गैर पत्रकारों की एक समिति बनायी जाये जो निरंतर बैठक करे और हड़ताल
कैसे समाप्त करायी जा सके उसका समाधान खोजे। आनंद बाजार कार्यालय तो बंद था वहां
हड़तालियों का कब्जा था इसलिए पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मियों की जो समिति बनायी
गयी उसकी बैठक बाहर एक मैदान में होती थी। वहां रोज यही विचार किया जाता कि हड़ताल
जितनी लंबी खिंचेगी आनंद बाजार संस्थान और उससे जुड़े पत्रकारों, संस्थान के
प्रकाशनों पर उतना ही ज्यादा असर पड़ेगा।
हम रविवार से जुड़े पत्रकार सर्वाधिक चिंतित थे क्योंकि जब हड़ताल हुई वह समय
हमारी पत्रिका के उत्कर्ष का समय था। जब लोग हर हफ्ते रविवार के नये अंक के लिए
उत्सुक रहते थे उस वक्त उसके प्रकाशन में अचानक ब्रेक लग जाना ना सिर्फ उसकी
प्रगति में बाधक था बल्कि उसके पाठकों के लिए भी निराशा का कारण था। अनेक प्रयास
करने के बाद भी हड़ताल खत्म नहीं हुई। इधर पत्रकार और गैर पत्रकार समिति की बैठक
भी अक्सर होती रही यह तय करने के लिए कि इस गतिरोध को कैसे रोका जाये। पचास दिन
बीत गये पर हड़ताली अपने ध्येय से टस से मस ना हुए। पत्रकारों और गैर पत्रकारों की
समिति का भी धैर्य टूट रहा था। आखिरकार पचासवें दिन यह तय किया गया कि जैसे भी हो
कल कार्यालय में जबरन घुसना है। जब यह तय हो गया कि कल का दिन निर्णायक है हर हाल
में हड़ताल तोड़वानी है तो मैंने अपने साथी जयशंकर गुप्त से कहा-भाई आप मेरे घर आ
जाना हम लोग साथ आ जायेंगे।
दूसरे दिन तय समय में जयशंकर
गुप्त मेरे घर पहुंच गये। उनसे मेरी श्रीमती ने कहा-जरा इनका खयाल रखियेगा।
जयशंकर गुप्त ने कहा-भाभी चिंता मत कीजिए, मैं हूं ना मेरे रहते पंडित
को कुछ नहीं होगा।
उनके विश्वास दिलाने से मेरी
पत्नी आश्वस्त हो गयी।
हम लोग जब वहां पहुंचे जहां रोज पत्रकार और गैर पत्रकारों की समिति की
बैठक होती थी वहां सभी लोग जबरन आनंद बाजार कार्यालय में घुसने को तैयार मिले।
संयोग से वहां मुझे सन्मार्ग के फोटोग्राफर भैया सुधीर उपाध्याय जी मिल गये। मैं
उन्हें बड़े भाई सा सम्मान देता हूं और उनका भी निरंतर स्नेह मुझे मिलता है।
उन्होंने जब मुझे देखा तो संकेत से अपने पास बुलाया।
भैया सुधीर उपाध्याय ने मुझे बताया- मैं देख कर
आया हूं हड़ताली कर्मचारी सोडावाटर की बोतलें, ईँटें और दूसरा सामान लिये उस गली
के आसपास की बिल्डिंगों की छतों पर जमे हैं जिससे तुम सब लोग अपने दफ्तर तक जाओगे।
हड़तालियों का तुम लोगों पर हमला करने का पूरा इंतजाम है। तुम सावधान रहना बहादुरी
दिखाने के चक्कर में घायल मत हो जाना।
मैंने यह सूचना अपने साथी
जयशंकर गुप्त को भी दे दी जो मेरे साथ थे। जयशंकर गुप्त ने कहा –चलो देखते हैं
क्या होता है। हम लोग आनंद बाजार कार्यालय की ओर जाने वाली वाटरलू स्ट्रीट में अभी
कुछ कदम ही आगे ब़ढ़े ही थे की आसपास की छतों से सोडावाटर की बोतलों, ईंटों की
अचानक बौछार शुरू हो गयी। भीड़ में हड़कंप मच गया। कई लोग घायल हो गये। मुझे पीछे
मुड़ कर देखते वक्त सोडावाटर फटने से उसका एक टुकड़ा जयशंकर गुप्त के पेट में लग गया।
मेरे पीछे आनंद बाजार प्रकाशन की बच्चों की हिंदी पत्रिका ‘मेला’ के संपादक योगेंद्र
कुमार लल्ला थे। उन्होंने जब देखा कि आगे बढ़ना मुश्किल है तो मेरा हाथ पकड़ कर
खींच लिया और सुरक्षा की दृष्टि से हम लोग पास की एक बिल्डिंग में घुस गये और वहां
की खिड़की से सारा कुछ देखते रहे। हड़ताली कर्मचारी सोडावाटर की बोतलें और दूसरी
चीजें फेंक रहे थे और नीचे पत्रकार और गैर
पत्रकार घायल हो रहे थे। इन हमलों से भी भीड़ ने हार नहीं मानी। सभी तय कर चुके थे
कि हड़ताल तोड़ना ही है। अनेक लोग घायल हो गये थे जिनमें कुछ की स्थिति गंभीर थी
जिन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। ज्यादा घायल होने वालों में दैनिक आनंद
बाजार पत्रिका के वरिष्ठ संपाजक और आनंद बाजार प्रबंधन के बड़े अधिकारी भी थे।
हंगामा थमा तो मैं और लल्ला
जी घर वापस लौट आये। शाम को जयशंकर गुप्त मेरे घर आये और आते ही मेरी श्रीमती से
बोले-भाभी पंडित को खोजने के लिए मैं पीछे मुड़ा ही था कि सोटावाटर की बोतल के
स्पिलिंटर से मेरे पेट में चोट लग गयी। खैर खुशी की बात यह थी कि पत्रकार और गैर
पत्रकार कर्मचारियों में से अधिकांश आनंद बाजार पत्रिका भवन में प्रवेश करने में
सफल हो गये थे हालांकि उनमें कई लोगों को चोटें भी लगी थीं।
जयशंकर गुप्त ने कहा-कुछ
कपड़े वगैरह साथ ले लो, आफिस के मेन गेट पर अभी भी हड़ताली जुटे हैं हम लोग प्रेस
वाले गेट से चुपचाप घुस जायेंगे। वैसा ही किया गया हम दोनों भी आफिस में पहुंच
गये।
वहां जाने पर पता चला कि आनंद बाजार के मालिक अभीक सरकार शाम को अस्पताल
में घायल संपादक और अन्य लोगों का हालचाल पूछने गये थे।
जब उन्होंने एक वरिष्ठ संपादक
से पूछा-आप कैसे हैं। क्या चाहते हैं।
वरिष्ठ संपादक का जवाब था-मैं कल अपना पेपर आनंदबाजार देखना चाहता
हूं।
इस पर अभीक बाबू ने जवाब
दिया-पचास दिन से मशीनें बंद पड़ी थीं उन पर धूल जमी है उसे साफ करने में भी समय
लग जायेगा। कैसे संभव हो सकेगा कल अखबार निकालना।
संपादक का जवाब था- मैं कुछ
नहीं जानता वह आपकी समस्या है। आपने मेरी इच्छा पूछी मैंने बता दिया।
अभीक सरकार बोले-आपकी इच्छा
का में सम्मान करता हूं। चाहे जो कुछ भी हो कल आपका आनंद बाजार अवश्य निकलेगा।
कहना नहीं होगा कि मशीन पर
खतरा हो सकता है यह जानते हुए भी अभीक सरकार ने अपने वरिष्ठ संपादक की इच्छा पूरी
की और दूसरी सुबह स्वयं अखबार लेकर उनसे मिलने अस्पताल गये। (क्रमश:)
आनंद बाजार प्रकाशन के हिंदी साप्ताहिक ‘रविवार’ में कार्य के दौरान
विविध प्रकार के अनुभव हुए। हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह से मिलने साहित्यकार
और पत्रकार तो आते ही रहते थे। कई बार ऐसे लोग भी आते थे जो अपने व्यक्तित्व और
कार्य में औरों से अलग और अनोखे होते थे। ऐसे ही एक व्यक्तित्व का यहां उल्लेख
करना जरूरी है। उनका नाम था वसंत पोतदार। लंबे-चौड़े डीलडौल और बुलंद आवाज वाले
वसंत पोतदार अच्छे वक्ता और एकल अभिनय में माहिर तो थे ही वे अच्छे लेखक भी थे।
एकल अभिनय में वे हिंदी, मराठी व अन्य कई भारतीय भाषाओं में प्रस्तुति देते थे।
कहते हैं कि जब वे स्वामी विवेकानंद के रूप में एकल अभिनय करते थे तो पूरे हाल में
सन्नाटा छा जाता था। बस कुछ सुनाई देता था तो लगातार बजनेवाली तालियां और वसंत
पोतदार का विवेकानंद के रूप में उनके संदेश का बुलंद स्वर। उनका भारतीय स्वाधीनता
संग्राम पर आधारित ‘वंदे मातरम’ कार्यक्रम भी बहुत
चर्चित और प्रशंसित हुआ था। इसके अतिरिक्त वीर
सावरकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस व अन्य महान व्यक्तित्वों के चरित्र पर वे एकल
अभिनय करते थे। उन्होंनेकई पुस्तकें भी लिखी थीं।
वसंत पोतदार-अरे यार मैं क्या लिखूंगा काहे बेमतलब में मुझे फंसाते
हो।
सुरेंद्र जी-कोलकाता महानगर में तो तुम भटकते ही रहते हो देखो कई ऐसे
लोग तुम्हें यों ही जीते मिल जायेंगे। बेमतलब जीते इन लोगों में कोई ना कोई
प्रतिभा होगी. बस वही तुम्हें उभारना है। स्तंभ का नाम होगा-कुछ जिंदगियां बेमतलब।
दूसरे दिन से ही वसंत ने काम
शुरू कर दिया। उन्होंने कोलकाता के गली-कूचों और कोने-कोतरे में पड़े ऐसे कलाकारों
और हुनरमंद लोगों की कहानी लिखनी शुरू कर दी जो काफी लोकप्रिय हुई। कुछ जिंदगियां
बेमतलब स्तंभ कुछ दिन में ही लोकप्रिय हो गया। इसमें वसंत ऐसे व्यक्तित्वों की
कहानी कहते जो दुनिया से विलग अपनी गुमनाम सी जिंदगी जी रहे थे। वे बस अपनी कला या
हुनर में खोये रहते थे।
वसंत यायावर का-सा जीवन
बिताते थे। एक जगह टिक कर नहीं रहते थे। वे मुंबई वापस जाते और कुछ महीने बाद फिर वापस आते। एक बार की बात
है वे बहुत दिन बाद हमारे रविवार के कार्यालय में आये उन्होंने संकेत से जानना
चाहा कि सुरेंद्र जी हैं क्या। मैं सझ गया था पर मैंने ऐसा भान किया कि मैं समझा
नहीं। इसके बाद वसंत पोतदार ने जेब से एक कागज निकाला और उस पर लिखा-इन दिनो मेरे
मौन व्रत चल रहा है, बोल नहीं रहा हूं। सुरेंद्र जी कहां हैं।
मैंने उत्तर दिया- अरे वसंत
जी आपके जैसा व्यक्ति जिसकी आवाज ही उसकी पहचान है वह इस तरह मौन धारण कर लेगा तो
कैसे चलेगा।
मेरी बात सुनते ही वसंत
पोतदार ने बुलंद ठहाका लगाया और बोले-अरे आपने ने तो मेरा मौन व्रत तोड़वा दिया।
कई महीने से मौन था आपकी बातों से वह प्रण टूट गया।
*
हमारे संपादक सुरेंद्र जी बहुत ही ईमानदार और
उसूल के पक्के इनसान थे। उन्होंने जिस संस्थान में भी काम किया कभी किसी भी प्रकार
की आर्थिक, व्यवस्था संबंधी या अन्य अनियमितता
नहीं होने दी। `रविवार' के उनके कार्यकाल का एक प्रसंग याद आता है। एक फिल्म पत्रकार जो
मुंबई में रहते थे एसपी के पुराने मित्रों में थे। एक बार वे कोलकाता आये उन्हें
पैसों की दरकार पड़ गयी। एसपी से उन्होंने एक हजार रुपये मांगे और कहा कि यह पैसा
वे `रविवार' के लिए लेख लिख कर चुका देंगे। एसपी ने उनको एक हजार रुपये कार्यालय
से अग्रिम दिलवा दिये। इसके बाद वे पत्रकार महोदय कई बार आये लेकिन लेख लिखना भूल
गये उधर एसपी को कार्यालय के रुपयों की चिंता थी जो उन्होंने उन पत्रकार महोदय को
दिलवाये थे। कई बार उनसे ताकीद की पर वे बिना लेख दिये मुंबई लौट जाते थे। एक बार
वे कोलकाता आये तो एसपी ने एक मोटा लिखने का पैड उन्हें दिया और अपने चैंबर में
बैठा दिया । उनसे कहा कि आज वे पत्रिका के लिए तीन-चार लेख लिख कर ही बाहर निकलें।
बाहर आये तो हम लोगों से बोले कि ये जो पत्रकार भीतर लिख रहे हैं वे चार लेख तैयार
कर लें तभी बाहर जा पायें। इस बीच पानी वगैरह मांगे तो दिलवा दिया जाये लेकिन हर
हाल में उनको लेख लिखवा कर ही मुक्त करना है। कहना नहीं होगा कि उस पत्रकार ने भी
एसपी का कहा माना और जब लेख पूरे हो गये तो मुसकराते हुए चैंबर से बाहर आये और
कहा-` लो भाई चुका दिया एसपी का कर्जा, अब तो मैं जाऊं। वाकई एसपी जैसा कोई और
नहीं होगा।' उस पत्रकार के चेहरे पर परेशानी या
तनाव का भाव नहीं बल्कि एक आत्मतोष का भाव था कि उसने अपने एसपी दा को बेवजह की
बेचारगी से बचा लिया।
थोड़ी देर बाद एसपी लौटे तो चैंबर खाली पाया
लेकिन उनके दीर्घप्रतीक्षित लेख वहां थे। वे बाहर आये और उन्होंने कहा कि वे चाहते
तो ये पैसा अपनी तरफ से चुका सकते थे लेकिन तब वे एक गलत आदत को प्रोत्साहन देने
के भागीदार बन जाते। वह पत्रकार दूसरी जगह भी ऐसा करते रहते। इतने ईमानदार और उसूल
के पक्के थे वे।
*
हमारे परिवार में पहली संतान के रूप में बेटी
अनामिका, दूसरा बेटा अनुराग और मेरे ‘रविवार’ में जाने के बाद छोटे बेटे अवधेश का
जन्म हुआ। इस पर भी सुरेंद्र जी से जुड़ा एक प्रसंग यादा आया। भैया हमारी तीसरी
संतान होने की खुशी में रविवार के हमारे साथियों के लिए मिठाई लेकर गये। सबने बहुत
प्रसन्नता जतायी। प्रसन्न सुरेंद्र जी भी हुए पर साथ ही उन्होंने भैया के माध्यम
से मुझ तक यह संदेश भी भेजा-अब आगे नहीं अन्यथा संजय गांधी को बुला लेंगे।(क्रमश:)